22.3.07

भगत सिंह की विरासत बनाम युवाओं की सामूहिक खुदकुशी

कल रवीश जी का ब्‍लॉग देख रहा था, उनकी मानसिक परेशानियों से परिचित हुआ। संयोग देखिए कि शाम एक टीवी वाले मित्र से बात हुई तो उन्‍होंने बड़े विस्‍तार से बताया कि जीवन में सब कुछ होने के बावजूद वह बड़ा असंतोष महसूस कर रहे हैं। ऐसे ही मेरे साथ पढ़े दो दर्जन से ज्‍यादा मित्रों से पिछले दिनों अलग-अलग समय पर मुलाकात और बातचीत हुई। कई तो इनफोसिस और आईबीएम जैसी कंपनियों में काम करते हैं। सभी आखिर में आह भरते हैं कि जीवन में कुछ नहीं बचा। मेरे एक करीबी मित्र पिछले दिनों सपत्‍नीक आत्‍मघात की स्थिति तक पहुंच गए। उनका वेतन करीब 50,000 है। उनकी पत्‍नी भी 25,000 तक कमाती हैं।

अजीब स्थिति पैदा हो रही है हमारे समाज में। मध्‍य वर्गीय युवा, मान लें 25 से 35 के बीच आज एक अजीब किस्‍म की पस्‍तहिम्‍मती से घिरे हुए हैं। घूम-फिर कर वे अपने परिवार तक जाते हैं या फिर अधिक से अधिक क्रेडिट कार्ड, ईएमआई और लोन में फंसे रहते हैं। एक सज्‍जन हैं जो कहते हैं कि भाई घर जाकर क्‍या करना...ऑफिस में ही टाइम काट लिया जाए। इस तरह के सभी युवा ऐसा नहीं है कि दुनिया से कटे हुए हैं...काफी सूचित हैं...समझदार हैं...लेकिन कुछ है जो उनके भीतर ही भीतर पल रहा है।

यह 70 के दशक के बाद की स्थिति है जब नेहरूवादी आशावाद का व्‍यापक शिगूफा अपनी चारों तहों तक बेनकाब हो चुका था...असंतोष था...उसी की अभिव्‍यक्ति हमें बंगाल और बिहार के आंदोलनों में देखने को मिली। चाहे वह नक्‍सली आंदोलन रहा हो या जेपी का आंदोलन। आज पृष्‍ठभूमि तो है, लेकिन दिशा जाने क्‍यों गायब जान पड़ती है। मुझे कोई भी मध्‍य वर्ग का ऐसा युवा नहीं मिला जो अपने आप में राजनैतिक संघर्ष को आज की तारीख में मुक्ति का माध्‍यम बताए या मानता हो। आखिर ऐसा क्‍यों है।

जबकि सरकार मानती है कि देश के पंद्रह से ज्‍यादा राज्‍यों में नक्‍सली आंदोलन का प्रभाव बढ़ा है...देश भर में युवाओं के नेतृत्‍व में करीब 4000 से ज्‍यादा जमीनी और परिवर्तनकामी संघर्ष चलाए जा रहे हैं...चाहे वे पार्टीगत हों या एनजीओगत...इस पर बहस विषयांतर होगा। लेकिन सवाल उठता है कि जंतर-मंतर पर मेधा के साथ साठ महिलाएं गिरफ्तार होती हैं...उनसे बदसलूकी की जाती है और युवाओं के उत्‍साह में पलने वाले टीवी चैनल उस खबर को नीचे की पट्टी पर लिखते तक नहीं हैं। आप किसी आईटी के लड़के से पूछिए कि भाई आजकल क्‍या पढ़ रहे हो, तो उसका जवाब औसतन यही होगा कि समय नहीं मिलता। बहुत होगा तो यह कि पवन वर्मा या पंकज मिश्रा की किसी किताब का नाम जबान से फूटेगा। लेकिन उसे इससे कोई मतलब नहीं होगा कि देश के माथे से लेकर पूर्वोत्‍तर तक और दण्‍डकारण्‍य से लेकर गुजरात तक क्‍या चल रहा है।

आज का युवा क्‍या संघर्षों से कट गया है...क्‍या उसका मोहभंग हो गया है...इतना खालीपन आखिर आता कैसे है...जबकि दुनिया सिमटती जा रही है और बोरियत को दूर करने के तमाम साधन मौजूद हैं...बाबा रामदेव से लेकर एक्‍स बॉक्‍स 360 तक सब कुछ।

मुझे लगता है कि हमारा शहरी युवा वर्ग आने वाले दिनों में बहुत खतरनाक स्थितियों में पहुंच जाएगा। जहां उसके पास भगवान का दिया सब कुछ तो होगा, लेकिन जो युवा कहलाने लायक शेष नहीं रहेगा। यह एक सामूहिक आत्‍महत्‍या की ओर प्रस्‍थान है।

भगत सिंह की जन्‍म शताब्‍दी पर आज हमें अगर देश के युवाओं के बारे में चिंतित होना पड़ रहा है, तो वाकई सोचने वाली बात है कि क्‍या हमने वाकई इस पीढ़ी के भीतर भगत सिंह की विरासत को डाला है या नहीं।

मुझे नहीं पता कि 23 मार्च को भारत के शहरी युवा क्‍या कर रहे होंगे...सोचता हूं इस बार पता करूं कि भगत सिंह को याद रखने वाले हमारे देश में कितने मुक्तिकामी नौजवान बचे हैं...हां...याद रखने वाले ही, क्‍योंकि ऐसे तमाम लोग हैं जो याद तो रखते हैं लेकिन उसका इस्‍तेमाल सिर्फ आत्‍म प्रदर्शन के लिए ही कर रहे हैं...

ऐसे कई कार्यक्रम होंगे कल इस देश में जहां भगत सिंह को बेच खाने वाले क्रांति के गीत गा रहे होंगे...बच के रहिएगा उनसे...और

...सोचिएगा कि आखिर 23 साल की अवस्‍था में भरपूर जवानी का बलिदान कोई कैसे कर सकता है...और हम क्‍या कर रहे हैं...एक सामूहिक आत्‍महत्‍या की तैयारी...बगैर किसी आततायी का सिर तक फोड़े हुए...कम से कम...

21.3.07

निष्‍ठुर दुनिया ब्‍लॉग की...

क्‍या बताऊं, अपने इस ब्‍लॉग पर मैंने शुरुआत कविता से की लेकिन क्‍या मालूम था कि लोग इतने निष्‍ठुर निकलेंगे। बताइए, कविता में एक सहज शारीरिक क्रिया 'पादना' का मैंने राजनीतिक प्रयोग किया और रतलाम से लेकर दिल्‍ली तक लोग उसे ही पकड़ सके। भाई, ठीक है कि कवि आउटडेटेड हो चुका है, इसका मतलब ये तो नहीं कि उसकी बेइज्‍जती की जाए।

अब समझ नहीं आ रहा है कि क्‍या लिखूं। इतने अच्‍छे माध्‍यम को लोगों ने एक-दूसरे की लड़ाई का मंच बना लिया है। आज ही मैंने अविनाश जी के ब्‍लॉग पर एक टिप्‍पणी की और उन्‍होंने पूरा फासिस्‍ट रवैया अपनाते हुए मेरा मुह नोच लिया, मुद्दे को टाल गए।

सोच रहा हूं, कि क्‍या किया जाए। रवि रतलामी भी रचनाकार पर तमाम साहित्‍य लिखते हैं, लेकिन उनका भी रवैया वैसा ही रहा। भाषा और शैली से लोग आगे बढ़ कर कविता का अर्थ समझते ही नहीं हैं।

सिर्फ एक जानकारी देना चाहूंगा...ब्रेख्‍त ने अपनी एक कविता में 'पादने' का प्रयोग किया है...क्‍या उनके बारे में भी अविनाश और रवि रतलामी का यही ख्‍याल होगा जो उन्‍होंने मेरे बारे में जाहिर किया है। पता नहीं, ब्‍लॉग के प्रसिद्ध लोगों ने ब्रेख्‍त को पढ़ा भी है नहीं या मैं ही ऐसा उदाहरण देकर खुश हो जा रहा हूं...बहुत निराशा हुई भाई लोगों आपकी दुनिया से...सोचा था कि कुछ असंपादित चीज़ें लिख पढ़ कर सुख उठाएंगे लेकिन यहां भी चैन नहीं...

18.3.07

आरंभ का पारंपरिक नाटक...


यह आरंभ है...तिर्यक विचार का साइबर स्‍पेस में आरंभ...उपस्थिति की आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच तमाम दावों से घिरी हिंदी की दुनिया में...आरंभ...करें शुरुआत हमेशा की तरह हिंदी वालों की बीमारी से...कविता की बीमारी...जिसने सड़क से कवि को नीचे उतार कर पटरी पर ला दिया...अब वह खड़ा है तकता दुनिया को लड़ते-भिड़ते...मूक...शांत...गूंगे होने की हद तक...खुद निष्क्रिय...


कविता क्‍या है...
बता सकते हो-
हर बात पर सिद्धांत पादने वाले
ओ बुद्धिजीवी।
मैं पूछता हूं-
एक कवि होकर भी...।

जो बनती नहीं चाहने पर भी लाख,
और
अचाहे-अयाचित सी फूट पड़ती है कभी।
इन दोनों में कौन।
दोनों ही...
चलो, छोड़ो यह सवाल-
क्‍या रखा इस बहस में।

जो मंचों पर चढ़ बटोरती है वाहवाही, और
पत्रं-पुष्‍पं...लिफाफे
भरी होती हैं जिनमें तमाम हसरतें
बिरादरी के ही मित्रों की (माफ कीजिएगा)
कि चलो अपने भी घर में
जुगाड़ हुआ एक जोड़ी बिदेसी फर्नीचर का...
या,
वो जो रह जाती है दबी
सीली हुई नोटबुक के भीतर
खुद कटते और एक-दूसरे को परस्‍पर काटते
तेज पन्‍नों के बीच
पीली-अधमरी...
जिसे आजीवन मिलता नहीं सौभाग्‍य छपने का।
बताओ.......
क्‍या...
फिर से दोनों ही...
अजीब विचारक हो भाई।

साफ बोलो
क्‍यों करते हो घालमेल
अब तर्को के बिछावन पर लोटना बंद भी करो।
चलो माना,
यह भी बस की बात तुम्‍हारे नहीं दीखती...
आगे बढ़ें क्‍या...।

एक, जो
फूल, पत्‍ती और कोयलों की प्रयाग में
बह कर ही होती हो मस्‍त,
और जिसकी गंध मादक
पहुंचाती राहत हत्‍यारों के नथुनों को
सड़ चुके जो पैदा कर-
गुजरात की चिरायंध...
या,
वो, जो बहाती आंसू मज़ार पर दक़नी की, और
दिलाती याद, कि
जब वे आएंगे हमारे लिए, तो फिर
कोई न बचेगा बोलने वाला...
मारे जाएंगे सब के सब
और हो जाएंगे अपनी ही लाशों के पहाड़ में दफ्न।

अरे, तुम तो चिंतित दीखते हो...।
सच बताओ-
यह मारे जाने का डर है, या
वाकई कुछ तय न कर पाने का दुख साले जा रहा है तुम्‍हें।
अरे, मैं तो मज़ाक कर रहा था-
जानता नहीं हूं क्‍या मैं सीमा तुम्‍हारी...
चलो, डर ही सही
कम से कम, नहीं चाहोगे तुम भी उस बिछावन पर लोटना
लिथड़ा हो जो मासूमों के खून से।
यानी, तुम करोगे आज तय,
अभी कर ही डालो मेरे लिए, कि
क्‍या होती है आखिर ये कम्‍बख्‍त कविता...।

मुझे एकांत चाहिए...निविड़ एकांत।
मेरा सिर फटा जा रहा है दर्द से, और ऊपर से सवाल तुम्‍हारे
बेध रहे हैं चेतना को मेरी...(कहता है वह मुझसे)
और जवाब खोजने के लिए
हो जाता है
क्षण भर के लिए अंतर्ध्‍यान।

अचानक,
थोड़ी ही देर बाद
सुनाई देती है मुझे
सूं.......................की पतली-सी आवाज़
उठता है दुर्गंध का एक भभूका, और
फूट पड़ती है एक कविता, कविता पर ही
बुद्धिजीवी के पश्चिम से।

मैं भाग खड़ा होता हूं...
वह फिर से, खुद को बचा लेता है...........
जवाबदेही से।





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