18.3.07

आरंभ का पारंपरिक नाटक...


यह आरंभ है...तिर्यक विचार का साइबर स्‍पेस में आरंभ...उपस्थिति की आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच तमाम दावों से घिरी हिंदी की दुनिया में...आरंभ...करें शुरुआत हमेशा की तरह हिंदी वालों की बीमारी से...कविता की बीमारी...जिसने सड़क से कवि को नीचे उतार कर पटरी पर ला दिया...अब वह खड़ा है तकता दुनिया को लड़ते-भिड़ते...मूक...शांत...गूंगे होने की हद तक...खुद निष्क्रिय...


कविता क्‍या है...
बता सकते हो-
हर बात पर सिद्धांत पादने वाले
ओ बुद्धिजीवी।
मैं पूछता हूं-
एक कवि होकर भी...।

जो बनती नहीं चाहने पर भी लाख,
और
अचाहे-अयाचित सी फूट पड़ती है कभी।
इन दोनों में कौन।
दोनों ही...
चलो, छोड़ो यह सवाल-
क्‍या रखा इस बहस में।

जो मंचों पर चढ़ बटोरती है वाहवाही, और
पत्रं-पुष्‍पं...लिफाफे
भरी होती हैं जिनमें तमाम हसरतें
बिरादरी के ही मित्रों की (माफ कीजिएगा)
कि चलो अपने भी घर में
जुगाड़ हुआ एक जोड़ी बिदेसी फर्नीचर का...
या,
वो जो रह जाती है दबी
सीली हुई नोटबुक के भीतर
खुद कटते और एक-दूसरे को परस्‍पर काटते
तेज पन्‍नों के बीच
पीली-अधमरी...
जिसे आजीवन मिलता नहीं सौभाग्‍य छपने का।
बताओ.......
क्‍या...
फिर से दोनों ही...
अजीब विचारक हो भाई।

साफ बोलो
क्‍यों करते हो घालमेल
अब तर्को के बिछावन पर लोटना बंद भी करो।
चलो माना,
यह भी बस की बात तुम्‍हारे नहीं दीखती...
आगे बढ़ें क्‍या...।

एक, जो
फूल, पत्‍ती और कोयलों की प्रयाग में
बह कर ही होती हो मस्‍त,
और जिसकी गंध मादक
पहुंचाती राहत हत्‍यारों के नथुनों को
सड़ चुके जो पैदा कर-
गुजरात की चिरायंध...
या,
वो, जो बहाती आंसू मज़ार पर दक़नी की, और
दिलाती याद, कि
जब वे आएंगे हमारे लिए, तो फिर
कोई न बचेगा बोलने वाला...
मारे जाएंगे सब के सब
और हो जाएंगे अपनी ही लाशों के पहाड़ में दफ्न।

अरे, तुम तो चिंतित दीखते हो...।
सच बताओ-
यह मारे जाने का डर है, या
वाकई कुछ तय न कर पाने का दुख साले जा रहा है तुम्‍हें।
अरे, मैं तो मज़ाक कर रहा था-
जानता नहीं हूं क्‍या मैं सीमा तुम्‍हारी...
चलो, डर ही सही
कम से कम, नहीं चाहोगे तुम भी उस बिछावन पर लोटना
लिथड़ा हो जो मासूमों के खून से।
यानी, तुम करोगे आज तय,
अभी कर ही डालो मेरे लिए, कि
क्‍या होती है आखिर ये कम्‍बख्‍त कविता...।

मुझे एकांत चाहिए...निविड़ एकांत।
मेरा सिर फटा जा रहा है दर्द से, और ऊपर से सवाल तुम्‍हारे
बेध रहे हैं चेतना को मेरी...(कहता है वह मुझसे)
और जवाब खोजने के लिए
हो जाता है
क्षण भर के लिए अंतर्ध्‍यान।

अचानक,
थोड़ी ही देर बाद
सुनाई देती है मुझे
सूं.......................की पतली-सी आवाज़
उठता है दुर्गंध का एक भभूका, और
फूट पड़ती है एक कविता, कविता पर ही
बुद्धिजीवी के पश्चिम से।

मैं भाग खड़ा होता हूं...
वह फिर से, खुद को बचा लेता है...........
जवाबदेही से।





6 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

स्वागत है तिर्यक विचारक जी आपका इस चिट्ठाजगत में।

बेनामी ने कहा…

स्वागत है तिर्यक विचारक जी आपका इस चिट्ठाजगत में।

रवि रतलामी ने कहा…

"...कविता क्‍या है...
बता सकते हो-
हर बात पर सिद्धांत पादने वाले..."

कविता जो भी हो, आपकी भाषा और शैली पसंद आई. पादता हर कोई है परंतु उसे दूसरे के पादने में ही दुर्गंध आती है!

चिट्ठाजगत् में आपका स्वागत और नियमित चिट्ठालेखन की शुभकामनाएँ.

उन्मुक्त ने कहा…

हिन्दी चिट्ठे जगत में आपका स्वागत है।

बेनामी ने कहा…

बहुत सही कहा रवि रतलामी जी आपने, पादता हर कोई है, लेकिन उसे दूसरे के पादने से ही दुर्गंध आती है। तिर्यक विचारक भी कुछ इसी अहंम्‍मन्‍यता के शिकार लगते हैं।

मसिजीवी ने कहा…

अच्‍छी कविता पादी आपने, पादते रहिए

विचार के साझेदार